भोपाल। 2 दिसंबर 1984 की उस काली रात का सुबह आज तक नहीं हो पाया है। विश्व की सबसे खतरनाक Industrial Disaster के 33 साल गुजर चुके हैं लेकिन चारों तरफ खामोशी है। सरकार खामोश है, सिस्टम खामोश है, शहर खामोश है। यह एक ऐसी खामोशी है जो पीड़ितों की जिंदगी में शोर मचा रही है। पिछले 33 सालों में सरकारें बदलती रहीं, सुनवाई चलती रही लेकिन पीड़ितों को मिला तो सिर्फ तारीख।
ऐसे भी होता है मौत..
2 और 3 दिसंबर 1984 को जो लोग मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में थे वे कहते हैं कि हमने कल्पना भी नहीं की थी कि मौत ऐसा होता है। 2 दिसंबर की रात को जब गैस रिसाव शुरू हुआ तो चारों तरफ से चीखें सुनाई दे रही थी। 3 दिसंबर की सुबह जैसे-जैसे सूरज चढ़ रहा था आसमान में चीलें और गिद्ध मंडराने लगे। चारों तरफ लाशों की ढ़ेर लगी थी। जो जिंदा थे उनका दम घुट रहा था, चारों तरफ धुंआ-धुंआ दिख रहा था, आंखों में जलन सांस लेने में परेशानी और खांसी से लोग परेशान थे। अस्पताल में लोगों की भीड़ लगी थी लेकिन डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर वे क्या इलाज करें।
30 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे
भोपाल गैस हादसे में 30 हजार से ज्यादा लोग मारे गए। 5 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए जिनमें आधे से ज्यादा 15 साल से कम उम्र के थे। 25 हजार से ज्यादा पीड़ित तो स्थाई तौर पर अक्षम हो गए। इंसान के साथ-साथ हजारों जानवर भी जहरीली हवा की चपेट में आकर मारे गए। भोपाल शहर में रहना मुश्किल हो गया था। भोपाल की हवा में दुर्गंध फैल गया था।
दूसरी, तीसरी पीढ़ी को पीड़ित नहीं मान रही है सरकार
इतना सबकुछ होने के बावजूद यह बहुत बड़ी विडंबना है कि सरकार गैस पीड़ितों की दूसरी, तीसरी और चौथी पीढ़ी को पीड़ित मानने से इंकार कर रही है। 1984 हादसे का जहर आज भी किसी ना किसी रूप में रिस रहा है। 2 दिसंबर 1984 का हादसा एक ऐसी घटना है जिसका जिक्र केवल बरसी के दिन ही किया जाता है। कितने लोगों को मुआवजा मिला, कितने लोग पुनर्वास के तहत नई जिंदगी शुरू कर पाए, सरकार की तरफ से पीड़ितों के स्वास्थ्य को लेकर अब तक क्या काम किए गए हैं, रोजगार के क्या अवसर उपलब्ध करवाए गए हैं- इन बातों पर कभी चर्चा नहीं होती है।
मुआवजे वाला पेंशन भी बंद किया गया
दस्तावेजों में पीड़ितों के लिए सरकार की तरफ से तमाम काम किए गए हैं। पुनर्वास के लिए बड़े-बड़े आवास बनाए गए हैं, पीड़ितों के लिए 33 अस्पताल खोले गए हैं। इसके अलावा मुआवजे के तौर पर हर साल करोड़ों का बजट जारी किया जाता है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। एक भी अस्पताल में एक्सपर्ट डॉक्टर नहीं हैं जो जहरीली हवा के चलते बीमार हुए लोगों का उचित इलाज कर सकें। स्थानीय लोगों का ये भी आरोप है कि पिछले कुछ सालों तक उन्हें मुआवजे के तौर पर कुछ पेंशन मिलता था लेकिन अब उसे भी बंद कर दिया गया है।
350 टन रासायनिक कचरा अब भी खुले में
इस हादसे को 33 साल गुजर चुके हैं लेकिन यूनियन कार्बाइड के कारखाने के भीतर पड़े 350 टन रासायनिक कचरे का अब तक निस्तारण नहीं हो पाया है। बारिश के मौसम में कचरे का पानी बहकर स्वच्छ पानी को भी प्रदूषित कर रहा है। हर साल इस घटना से जुड़ी कोई ना कोई रिपोर्ट सामने आती है। रिपोर्ट के मुताबिक रासायनिक कचरे की वजह आसपास का कई किलोमीटर का दायरा रहने लायक नहीं रह गया है। रसायनिक पदार्थ रिस कर भूजल को बुरी तरह प्रदूषित कर चुका है। मिट्टी भी इतनी प्रदूषित हो गई है कि यहां परजीवी का पनपना मुश्किल है। अगर यहां पैदावार किया जाता है तो वह जहर की खेती होगी। आज भी न्याय की जंग जारी है लेकिन न्याय तब तक नहीं मिलेगा जब तक हम इस घटना का जिक्र बरसी के अलावा दूसरे दिन भी नहीं करेंगे।