रिपोर्ट : विनीत दुबे
अहमदाबाद, 9 जुलाई 2019 (युवाप्रेस डॉट कॉम)। हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र चार महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिका है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता। दुर्भाग्यपूर्ण है कि विधायिका सत्ता-लोलुपता का शिकार हो रही है, कार्यपालिका को भ्रष्टाचार की दीमक चाट रही है। न्यायपालिका अपनी कमजोरियों से जूझ रही है और पत्रकारिता जो निष्पक्ष और निर्भीक होनी चाहिये वह भी सिर्फ कहने को ही निष्पक्ष रह गई है। हम बात कर रहे हैं कमजोर न्यायपालिका की, जिसकी भेंट चढ़ती है लोगों की जिंदगी और संपत्ति। एक और जीवन तब न्यायपालिका की कमजोरी की भेंट चढ़ गया, जब न्यायपालिका ने उसे न्याय देने में इतना अधिक समय लगा दिया कि उसकी दूसरी शादी करने की उम्र ही निकल गई।
खाली पड़े हैं जजों के पद, मुकदमों का लगा है ढेर

जब लोगों के जीवन में किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न होता है, तो लोग न्यायतंत्र-न्यायपालिका पर ही भरोसा करते हैं और कहते भी हैं कि ‘अब फैसला कोर्ट में होगा।’ देश की आज़ादी के इतने सालों के बाद भी अभी तक कोई भी सरकार न्याय तंत्र की कमजोरी का इलाज नहीं कर पाई। न्यायतंत्र में न्यायाधीशों की कमी से लाखों की संख्या में मुकदमे सालों तक लंबित पड़े रहते हैं, पुराने मुकदमों का निपटारा नहीं हो पाता है और दिन प्रति दिन नये मुकदमे दायर होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में तलाक के एक मामले में एक व्यक्ति को न्याय मिलने में 24 साल का लंबा वक्त लग गया। इस व्यक्ति ने अपनी पत्नी को तलाक देने के लिये अदालत का आसरा लिया था और सोचा था कि तलाक मिलने के बाद वह दूसरी शादी कर लेगा, परंतु तलाक मिलने में 24 साल लग गये और तब तक उसकी दूसरी शादी करने की उम्र निकल गई। तारीख पर तारीख के चक्रव्यूह में वह ऐसा फँसा कि जवानी से निकलकर बुढ़ापे की दहलीज पर पहुँच गया और दूसरी शादी करने का सपना, सपना बनकर रह गया।
1995 में दी गई तलाक़ की अर्जी पर 2019 में आया फैसला

चूँकि तलाक लेने वाला दंपत्ति सरकारी कर्मचारी है, इसलिये उनकी पहचान उजागर नहीं की गई है। इस दंपत्ति की शादी 1988 में हुई थी, 7 साल तक दोनों साथ में रहे, शुरुआत में सबकुछ ठीक था, फिर दिक्कतें आने लगी। इसलिये पति-पत्नी 1995 में अलग-अलग रहने लगे। इसी दौरान पति ने अदालत में तलाक के लिये अर्जी दी थी। हालाँकि ट्रायल कोर्ट ने अर्जी खारिज कर दी। इसके बाद उसने हाईकोर्ट के समक्ष अपील की। वहाँ 2002 से उसकी अपील विचाराधीन थी। 2008 में इस व्यक्ति को कोर्ट से थोड़ी राहत मिली थी, परंतु इसी बीच पत्नी ने अपील दाखिल कर दी और बेंच ने इस व्यक्ति को दूसरी शादी करने से रोक दिया। 2018 तक हाईकोर्ट की बेंच यह कोशिश करती रही कि किसी तरह से दोनों के सम्बंध फिर से ठीक हो जाएँ। 2018 में सुनवाई के दौरान पत्नी ने अदालत से कहा भी कि वह पति के साथ फिर से रहने के लिये तैयार है, परंतु आखिरी वक्त पर उसने फिर इनकार कर दिया। इससे मामला फिर वहीं का वहीं रह गया। अंततः 24 साल बाद हाईकोर्ट की बेंच इस निष्कर्ष पर पहुँची कि 1995 से लेकर अभी तक वास्तव में महिला अपने पति के साथ रहना ही नहीं चाहती है। तब जाकर कोर्ट ने पति की तलाक को मंजूरी दी और फैसले में लिखा कि साथ रहने के लिये प्रति दिन इनकार करना परित्याग करने के साथ-साथ क्रूरता भी है। हालाँकि अदालत का फैसला तब आया है जब पति की दूसरी शादी करने की उम्र निकल चुकी है और उसने बुढ़ापे में कदम रख दिये हैं। इस प्रकार न्याय में हुई देरी से इस व्यक्ति का दूसरी शादी करने का सपना, सपना बनकर रह गया।