*क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट में भयावह भविष्यवाणी
*ग्लोबल वॉर्मिंग-क्लाइमेट चेंज मचाएँगे विनाश
*बाढ़, भूकंप और सुनामी जैसी आपदाएँ जीने नहीं देंगी
रिपोर्ट : तारिणी मोदी
अहमदाबाद, नवंबर, 2019 (युवाPRESS)। अटलांटिक महासागर में गोताखोरों ने समुद्र की तलहटी में कुछ ऐसे खंडहर और संरचनाएँ देखी हैं, जिनसे पता चलता है कि पहले वहाँ कोई द्वीप रहा होगा, जो भारी विप्लव के कारण समुद्र के गर्भ में समा गया होगा। इसी प्रकार रूस और चीन के बीच गोवी रेगिस्तान के बारे में कहते हैं कि वहाँ पहले समुद्र था, परंतु प्रकृति में हुए उथल-पुथल के कारण यहाँ का जल सूख गया और वह स्थान रेगिस्तान में परिवर्तित हो गया। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शुक्ल यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण (Shatapatha Brahmana) और भारतीय खगोलशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ सूर्य सिद्धान्त (Surya Siddhanta) में जल प्रलय की गणनाएँ दी गईं हैं। उस आधार पर यह तय किया गया है कि पृथ्वी में कभी-कभी अग्नि, हिम या जल प्रलय जैसी उथल-पुथल और विनाश होते रहे हैं। ऐसी कितने ही उलटफेर या संघातों के बारे में भूगर्भवेत्ता और इतिहासवेत्ता भी बताते आए हैं। प्रलय प्रकृति का एक समर्थ शस्त्र है, जिसका उपयोग वह परिवर्तन के लिए करती है। कदाचित यह सिखाने के लिए कि मनुष्य का स्वयं को सर्व-समर्थ समझना उसकी भारी भूल है। इस विशाल ब्रह्माण्ड में केवल दैवीय-शक्तियों के संचालन में एकमात्र परमात्मा का आधिपत्य है, जिनके आगे विज्ञान भी परास्त हो जाता है। ये शक्तियाँ ही सृष्टि का संचालन करती हैं। मनुष्य उस परिवर्तन को किसी भी तरह रोक नहीं सकता। वह अपने आपको इन परिवर्तनों के अनुकूल ढाल कर अपने भीतर शांति और संतुलन जरूर साध सकता है। आचार्य चाणक्य का भी कथन है, “जब प्रलय का समय आता है, तो समुद्र भी अपनी मर्यादा तोड़ कर किनारों को छोड़ जाते हैं”। भारतीय प्राचीन-पुरातन-पौराणिक सनातन धर्म, संस्कृति और ग्रंथों में कही गई इन बातों को साकार होते हुए हम अक्सर देखते हैं और हाल ही में अमेरिकी विज्ञान एवं समाचार संस्थान क्लाइमेट सेंट्रल (Climate Central) की एक रिपोर्ट ने जिस भयावह भविष्य की परतों को खोला है, वह भी इसी बात की ओर इंगित करती हैं कि सृष्टि का सूत्रधार कोई एक तत्व है, न कि मानव।
30 वर्ष बाद मुंबई, कोलकाता समेत देश के कई तटीय क्षेत्र पर है संकट

क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार सदी के मध्य तक यदि ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जल-स्तर तेजी से बढ़ा, तो भारत के कई राज्य प्रलय के गर्भ में विलुप्त हो सकते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार तटों के किनारे बसे राज्य या जिनका भूजल स्तर काफी नीचे है, वे राज्य समुद्री जल में डूब जाएँगे। समुद्री जलस्तर में वृद्धि होने से 2050 तक दुनिया भर के 10 देशों की जनसंख्या पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। 30 वर्ष बाद मुंबई, कोलकाता समेत देश के कई तटीय क्षेत्र समुद्री पानी में डूब जाएँगे या इन्हें प्रति वर्ष भयानक बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है। तेज नगरीकरण एवं आर्थिक वृद्धि के चलते तटीय बाढ़ से हमारी एशिया के 7 देशों के सर्वाधिक प्रभावित होने की आशंका है। समुद्री जल स्तर बढ़ने से विश्व की लगभग 30 करोड़ जनसंख्या प्रभावित हो सकती है। इनमें भारत के सर्वाधिक 4 करोड़, बांग्लादेश के 2.5 करोड़, चीन के 2 करोड़ और फिलीपींस के लगभग 1.5 करोड़ लोगों का जीवन संकट में पड़ सकता है। आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकट के लिए भारत में मुंबई और कोलकाता को चिह्नित किया गया है। इसी प्रकार चीन में गुआंगझो और शंघाई को, बांग्लादेश में ढाका को, म्यानमार में यंगून को, थाईलैंड में बैंकॉक को और वियतनाम में हो ची मिन्ह सिटी तथा हाइ फोंग को भी चिह्नित किया गया है।
वर्षा का बदल चुका है पैटर्न

इस बीच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-मुंबई (Indian Institute of Technology-Bombay) यानी IIT-Bombay ने बारिश के 112 वर्ष के आंकड़ों का हिसाब लगाते हुए बताया है कि देश के कुल 632 में से 238 जिलों में वर्षा का पैटर्न बदल चुका है। 1901 से 2013 के बीच राजस्थान में 9, गुजरात में 26.2 प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई है। केरल में भारी वर्षा और बाढ़ से, जो नुकसान हुए हैं, उससे ये साबित होता है कि जलवायु का पैटर्न बदल रहा है। खनन और वृक्षों को काटकर पर्यावरण को जो क्षति पहुँचायी गयी है उसका परिणाम मनुष्य को भोगना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश अपना रास्ता बदल रही है। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में जहाँ सूखा रहता था, वहाँ अब भारी बारिश और बाढ़ आ रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के सूखे क्षेत्रों में भी भारी बारिश और बाढ़ का कहर लोग झेल रहे हैं।
समुद्रतटीय शहरों के अस्तित्व पर बढ़ा संकट

शोधकर्ताओं के मुताबिक, तटीय शहरों में समुद्र का जलस्तर बढ़ने से संकट बढ रहा है। इससे पहले भी दुनिया के कई देशों सुनामी यानी समुद्र प्रलय की त्रासदी झेल चुके हैं, परंतु अब जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में भी समुद्रतटीय शहरों के अस्तित्व पर खतरा बढ़ता जा रहा है। समुद्री तूफ़ान को जापानी भाषा में सुनामी (Tsunami) कहते हैं, यानी बन्दरगाह के निकट की लहर। ये बहुत लम्बी और सैकड़ों किलोमीटर चौड़ाई होती हैं, जब ये तट के पास आती हैं, तो लहरों का निचला हिस्सा ज़मीन को छूने लगता है, तब इसकी गति कम हो जाती है और ऊँचाई बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब ये तट से टक्कर मारती हैं, तो सुनामी आती है। इसकी गति 420 किलोमीटर प्रति घण्टा और ऊँचाई 10 से 18 मीटर तक होती है। अक्सर समुद्री भूकम्पों की वजह से ये तूफ़ान पैदा होते हैं। प्रशान्त महासागर में ये बहुत आम बात है, परंतु बंगाल की खाड़ी, हिन्द महासागर, प्रशांत महासागर और अरब सागर में ऐसी सुनामी कम देखने को मिली है, इसीलिए शायद भारतीय भाषाओं में इनके लिए कोई विशिष्ट नाम नहीं है। सुनामी लहरें समुद्री तट पर भीषण तरीके से हमला करती हैं और जान-माल का बुरी तरह नुक़सान कर सकती है। इनकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। जिस तरह वैज्ञानिक भूकंप के बारे में भविष्य वाणी नहीं कर सकते वैसे ही सुनामी के बारे में भी अंदाज़ा नहीं लगा सकते। लेकिन सुनामी के अब तक के रिकॉर्ड को देखकर और महाद्वीपों की स्थिति को देखकर वैज्ञानिक कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। धरती की जो प्लेट्स या परतें जहाँ-जहाँ मिलती है वहाँ के आसपास के समुद्र में सुनामी का ख़तरा ज़्यादा होता है। 26 दिसंबर, 2004 को दक्षिण एशिया, जिसमे भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका, मालदीव, थाईलैंड और मलेशिया शामिल हैं, सुनामी के कहर से लगभग 20 हाजार लोगों की मौत हो गई थी। 1 अप्रैल, 1946 को प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) के अलास्का में 8.6 मेगावॉट का अलेउतियन द्वीपसमूह भूकंप आया, जिसकी तीव्रता से एक सुनामी उत्पन्न हुई जिसने हवाई (Hawaii) द्वीप पर हिलो (Hilo) को 14 मीटर ऊँचा और वह क्षेत्र तबाह हो गया।। इसमें 165 से 173 लोग मारे गए थे। सुनामी के उदाहरणों में लगभग 8,000 साल पहले स्टोरगा, 1929 में ग्रैंड बैंक और 1998 में पापुआ न्यू गिनी (टापिन, 2001) शामिल हैं। ग्रैंड बैंक और पापुआ न्यू गिनी की सुनामी भूकंपों से आई, जिसने अवसादों को अस्थिर कर दिया, जिससे वे समुद्र में बह गए और सुनामी उत्पन्न हुई। 1960 में वाल्डिविया भूकंप (Valdivia earthquake ), 1964 अलास्का भूकंप (Alaska earthquake), 2004 हिंद महासागर भूकंप (Indian Ocean earthquake) और 2011 में तुहोकू भूकंप (Tohoku earthquake) शक्तिशाली मेगाथ्रस्ट भूकंप (Megathrust Earthquakes) के उदाहरण हैं, जो सुनामी उत्पन्न करते हैं, जिसे टेल्टसुनामिस (Teletsunamis) के रूप में जाना जाता है।
ग्लोबल वार्मिंग से धरती की आबो-हवा बिगड़ी

1950 में यह पता चला था कि पहले से संभावित सुनामी से बड़ा सुनामी विशालकाय पनडुब्बी भूस्खलन के कारण हो सकता है। ये तेजी से पानी के बड़े खंडों को विस्थापित करते हैं, क्योंकि ऊर्जा पानी की तुलना में अधिक तेजी से पानी को स्थानांतरित कर सकती है। 1958 में उनके अस्तित्व की पुष्टि की गई, जब अलास्का के लिटुआ खाड़ी में एक विशाल भूस्खलन के कारण सबसे ऊंची लहर दर्ज की गई, जिसकी ऊंचाई 524 मीटर (1700 फीट से अधिक) थी। 1963 में एक और भूस्खलन-सुनामी घटना घटी जब मोंटे टोक का एक विशाल भूस्खलन इटली में वाजोंट डैम में घुस गया। परिणामी लहर 250 मीटर (820 फीट) से अधिक 262 मीटर (860 फीट) ऊंचे बांध पर बढ़ी और कई शहरों को नष्ट कर दिया, जिसमें लगभग 2,000 लोग मारे गए। वैज्ञानिकों ने इन तरंगों का नाम मेगाटसुनामिस (Megatsunamis) रखा। विनाशकारी उल्कापिंडों के कुछ उदाहरणों में 31 मार्च, 1979 को नागासाकी और 15 जून, 2006 को मिनोर्का में शामिल हैं, जिसके कारण लाखों यूरो का नुकसान हुआ था।
ग्लोबल वार्मिंग से धरती की आबो-हवा बिगड़ रही है। तापमान बढ़ रहा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि यही तो क़यामत आने के संकेत हैं, जब ग्लेशियर पिघलने से समंदर में इतना पानी हो जाएगा कि शहर के शहर डूब जाएँगे, बहुत से देशों का तो नामो-निशान मिट जाएगा। अमेरिकी संस्थान क्लाइमेट सेंट्रल ने भारत के कई नामों पर समंदर संकट आने की बात कही है। आइए जानते हैं भारत के संकट में फँसे उन देशों के बारे में।
- सूरत- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार 50 लाख की जनसंख्य वाले सूरत को प्रति वर्ष बाढ़ की भयावह त्रासदी का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि यहाँ के समुद्र का जलस्तर काफी तेजी से बढ़ रहा है।
- कोलकाता- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार प. बंगाल की राजधानी यानी कोलकाता को सबसे ज्यादा खतरा बंगाल की खाड़ी और हुगली नदी की शाखाओं के जलस्तर बढ़ने से हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो कोलकाता की 1.50 करोड़ जनसंख्या को भारी क्षति हो सकती है। शहर के लोगों को पहले से ही भारी बारिश और अन्य घटनाओं से प्रेरित बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है।
- मुंबई- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार 1.80 करोड़ जनसंख्या वाली देश की आर्थिक राजधानी मुंबई को हालात काफी खराब स्थिति में हैं, हालाँकि प्रति वर्ष ही यहाँ बाढ़ से परेशानी उतपन्न होती है, परंतु 2050 तक इसकी हालत और बदतर होने के आसार हैं। तटीय बाढ़ की वजह से मुंबई के कई क्षेत्र डूब सकते हैं। इससे पहले भी जुलाई-2005 में मुम्बई को प्रकृति से छेड़छाड़ का बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा था। 24 घंटे के भीतर शहर में 900 मिमी से अधिक बारिश हुई, जिसमें 450 से अधिक लोग मारे गए। इतना ही नहीं, बाढ़ के साथ बुखार, डेंगू, डायरिया और कालरा का प्रकोप ने मुंबई में त्राही मचा दी थी।
- ओडिशा- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार ओडिशा के पारादीप (Paradeep) जैसे तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लगभग 5 लाख लोगों की जनसंख्या 2050 तक तटीय बाढ़ की जद में आ सकती है।
- केरल- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष आई बाढ़ ने केरल में 1.4 करोड़ लोगों को प्रभावित किया था, वहीं 2050 में एक बार फिर केरल के अलापुझा (Alappuzha) और कोट्टायम (Kottayam) जैसे जिलों को समंदर तटीय बाढ़ जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है।
- तमिलनाडु- क्लाइमेट सेंट्रल की रिपोर्ट के अनुसार इस राज्य के तटीय क्षेत्र भी बाढ़ और बढ़ते समुद्री जलस्तर से अछूते नहीं रहेंगे। इसमें चेन्नई, थिरवल्लूर, कांचीपुरम प्रमुख हैं। अकेले चेन्नई में 70 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं, जिन्होंने हाल ही में बाढ़ और सूखे दोनों की समस्या का सामना किया है।
पर्यावरण संरक्षण ही उपाय, पर अकेला कानून क्या करे ?

हमारे देश में पर्यावरण सम्बन्धी कानूनों की कमी नहीं है। भारत के संविधान में ‘पर्यावरण संरक्षण’ का स्पष्ट जिक्र 1977 में किया गया यानी हमारा संविधान लागू होने के 28 वर्ष बाद संसद ने 1977 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा केन्द्र तथा राज्य सरकारों के लिए पर्यावरण को संरक्षण तथा बाढ़ावा देना आवश्यक कर दिया। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में अनुच्छेद 48ए जोड़ा गया। इस अनुच्छेद के अनुसार ‘‘राज्य पर्यावरण के संरक्षण एवं सुधार और देश के वनों तथा वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए प्रयास करेगा।’’ इसी संशोधन के दौरान संविधान में अनुच्छेद 51ए(जी) भी जोड़ा गया जिसके तहत प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह ‘‘प्राकृतिक वातावरण जिसमें वन, झील, नदियाँ तथा वन्यजीव शामिल हैं, के संरक्षण तथा सुधार के लिए कार्य करे तथा जीवित प्राणियों के प्रति दया भाव रखे।’’ वर्ष 1980 में उच्चतम न्यायालय में पर्यावरण सम्बन्धी पहला मामला रतलाम नगरपालिका बनाम विरधीचंद का दर्ज हुआ। तत्पश्चात आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ भी बढ़ती गई और अदालत में नदी जल प्रदूषण, भूजल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण और वनों के विनाश से सम्बन्धित याचिकाओं की बाढ़ ही आ गई। अब जबकि उच्चतम न्यायालय ने संविधान के तहत कई कानूनी मापदंड निर्धारित कर दिए हैं तथा इन आदेशों को मानने के लिए हम बाध्य भी हैं, इन्हें लागू करना एक समस्या बन गया है।