भारत आजादी के 70वें साल में प्रवेश कर चुका है। इन 70 सालों में हमारे देश ने कई उल्लेखनीय सफलताएं हासिल की। अंग्रेजों द्वारा खोखली करके छोड़ी गई अर्थव्यवस्था को हमने दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बनाया। गुलामी की छत्रछाया से निकलकर भारतीयों ने दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का डंका बजाया। लेकिन दुख की बात है कि कुछ क्षेत्रों में हम भारतीय आज भी गुलाम मानसिकता से जकड़े हुए हैं। ये क्षेत्र हैं हमारी शिक्षा व्यवस्था और पुलिस प्रशासन। आज हम शिक्षा व्यवस्था की बात करेंगे और जानेंगे कि किस तरह से हम भारतीय आज भी अंग्रेजी शिक्षा के गुलाम बने हुए हैं, जिसने हमें काफी नुकसान पहुंचाया है और पहुंचा रही है।
गौरतलब है कि अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड मैकाले ने औपनिवेश काल के दौरान भारत में अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को शुरु किया था। मैकाले की सोच थी कि अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के आगमन के बाद भारतीय अपनी संस्कृति और परंपराओं को भूल जाएंगे और पूरी जिन्दगी अंग्रेजों की गुलामी करेंगे। लेकिन हुआ ये है कि ना तो हम पूरी तरह से अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था को अपना पाए और ना अपनी सांस्कृतिक विरासत को ही सहेज सके। हालात ये हैं कि हम कहीं बीच में लटक गए हैं और हमारा एजुकेशन सिस्टम स्किल्ड लोगों की जगह सिर्फ भीड़ पैदा कर रहा है। गौरतलब है कि किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था, राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में सबसे अहम होती है, लेकिन भारतीय शिक्षा व्यवस्था इस रोल में बिल्कुल भी फिट नजर नहीं आ रही है। ऐसे में ये जानना जरूरी है कि आखिर हमारे एजुकेशन सिस्टम में कमी कहां है ?
रचनात्मकता जीरो
हमारा एजुकेशन सिस्टम रचनात्मकता के स्तर पर बिल्कुल जीरो है। हम सिर्फ चीजों को याद करने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन यदि कुछ मौलिक (नया) बनाना हो तो हम उसमें फिसड्डी साबित होते हैं। दरअसल अंग्रेजों ने जो शिक्षा व्यवस्था बनायी, उसमें उनका उद्देश्य सिर्फ नौकर पैदा करना था। यही कारण है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था आज भी क्लर्क या नौकरशाह तो पैदा कर सकती है लेकिन वैज्ञानिक, बिजनेसमैन या एन्टरप्रेन्योर नहीं। यही वजह है कि वैदिक काल के बाद से हम दुनिया को कुछ भी नया नहीं दे सके हैं। हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था सिर्फ एक मेमोरी टेस्ट बनकर रह गई है जो सिर्फ इस बात पर आधारित है कि कोई चीज हमें कितना याद रहती है। जो जितना ज्यादा याद कर सकता है वह उतना ही अच्छा विद्यार्थी है।
इस सिस्टम का असर यह हुआ है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था एक तरह से रोबोट्स बना रही है, जो वो ही सीखते हैं, जो उन्हें सिखाया जाता हैं। हम आर्ट्स, दर्शनशास्त्र और मानविकी जैसे विषयों से दूर होते जा रहे हैं। जबकि एक देश की तरक्की में इन विषयों का बड़ा रोल होता है, लेकिन हमारे देश में इन विषयों को अच्छी नजर से देखा ही नहीं जाता।
सामाजिक परिवेश की खामियां
हमारे समाज में पहले से ही एक कमी रही है कि हमने पहले श्रेष्ठता के पैमाने बनाए हैं और फिर लोगों को उन पर चलने के लिए मजबूर किया है। जो इन पैमानों पर खरा उतरता है, उसको इज्जत मिलती है और जो इस पैमाने में पिछड़ जाता है, उसे नकारा मान लिया जाता है। ऐसा ही कुछ शिक्षा के क्षेत्र में भी हुआ है, जहां हमनें इंजीनियर, मेडिकल और वकालत जैसे गिने-चुने पेशों को अच्छा माना और अपनी पीढ़ियों को इन्हीं पर आगे बढ़ने का दबाव बनाया। ऐसे में जो सचमुच इंजीनियर या डॉक्टर बनना चाहते थे, वो आगे निकल गए और जो इन क्षेत्रों में नहीं जाना चाहते थे उन्हें नकारा मान लिया गया। यही वजह रही कि हम कई क्षेत्रों में बुरी तरह से पिछड़ गए हैं और हमारी कई पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।
बोर्ड सिस्टम की दिक्कत
भारत में अलग-अलग बोर्ड सिस्टम चलता है, मतलब यदि आप बिहार से हैं तो आपको बिहार बोर्ड से पढ़ाई करनी होगी, यूपी से हैं तो यूपी बोर्ड से, दिल्ली समेत कई जगहों पर सीबीएसई बोर्ड है। ऐसे में हुआ ये है कि बिहार का छात्र जनरल नॉलेज में अच्छा है तो गणित में फिसड्डी है, वहीं सीबीएसई का छात्र इंग्लिश और विज्ञान में मजबूत है तो जनरल नॉलेज में पिछड़ गया है। इस तरह से कह सकते हैं कि अलग-अलग बोर्ड के मजबूत और कमजोर पक्ष हैं, जो वहां के छात्रों में भी आ गए हैं। इसके बदले अगर पूरे देश में एक ही बोर्ड सिस्टम हो तो देश के युवा एक ही प्लेटफॉर्म पर कंप्टीशन कर पाएंगे, जिससे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।
पुराना सिलेबस
आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर साल करीब 12 करोड़ बच्चे स्कूल में एडमिशन लेते हैं, लेकिन हाईस्कूल तक आते-आते यह आंकड़ा आधा रह जाता है, मतलब 6 करोड़। वहीं ग्रेजुएशन के वक्त यह आंकड़ा होता है करीब 2.5 करोड़, जिसमें से सिर्फ 60 लाख युवा नौकरी करने लायक होते हैं और बाकी सिर्फ भीड़। अब इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारा एजुकेशन सिस्टम क्या नुकसान कर रहा है। आज दुनिया भर में सीखने के आधुनिक तरीके ईजाद हो गए हैं, वहीं हम आज भी अंग्रेजों की बनायी शिक्षा व्यवस्था पर अटके हुए हैं। शायद यही कारण है कि हम भारतीय कई क्षेत्रों में पिछड़ गए हैं।
रिसर्च की कमी
हम आज दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के निर्यातक हैं। अरबों-खरबों रुपए हम हर साल हथियारों पर खर्च कर रहे हैं। वहीं जब बात शिक्षा की आती है तो हम अपनी कुल जीडीपी का सिर्फ 2 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं। आसान शब्दों में समझें तो हम प्रति व्यक्ति एजुकेशन पर सिर्फ 30000 रुपए खर्च करते हैं, जो कि कई अफ्रीकी देशों से भी कम है। हम ये भी जानते हैं कि यदि हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को बेहतर करें तो अपनी प्रतिभा के दम पर आधुनिक हथियार समेत कई जरुरत की चीजें हम अपने देश में ही डेवलेप कर अपने अरबों-खरबों रुपए बचा सकते हैं। लेकिन शायद इस ओर हमारे नीति-नियंताओं का ध्यान ही नहीं है !
इसके अलावा हमारे देश में रिसर्च पर भी ना के बराबर पैसा खर्च किया जाता है। यही कारण है कि भारत एक साल में सिर्फ 17 पेटेंट फाइल कराता है, वहीं चीन एक साल में 540 के करीब और दक्षिण कोरिया 4500 पेटेंट फाइल करता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि क्यों हम रिसर्च में इतने पीछे हैं ?
शिक्षकों की कमी
किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था शिक्षकों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। एक टीचर प्रेरक की भूमिका निभाता है, जो छात्र-छात्राओं सहित पूरे समाज को सही दिशा दिखाता है। लेकिन भारत इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण है हमारे देश के सिस्टम में अध्यापकों को उतनी अहमियत नहीं मिलना है, जिसके वो हकदार होते हैं। इसके अलावा हमारे देश में ऐसा कोई फिल्टर सिस्टम भी नहीं है, जिससे अच्छे अध्यापक आगे आ सकें। हमारे कई अध्यापकों को तो बेसिक ज्ञान भी नहीं होता है, ऐसे में उनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चों का भविष्य तो भगवान भरोसे होगा ही। वहीं जो अच्छे अध्यापक हैं वो कम पैसे मिलने के कारण विदेशी यूनिवर्सिटीज में पढ़ाना ज्यादा बेहतर समझते हैं। यही कारण है कि हम विश्वस्तरीय प्रतिभा पैदा नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि हमारे कई संस्थान जैसे IIT, AIIMS, IIM आदि विश्वस्तरीय हैं, लेकिन इनकी संख्या मुट्ठी भर है। एक ऐसे देश में जिसकी जनसंख्या 120 करोड़ को पार कर चुकी है तो उसके लिए ये संस्थान ना के बराबर ही हैं।
आज जब दुनिया तेजी से बदल रही है और तकनीक हमारे जीवन पर हावी होती जा रही है। हम आज भी कई सौ साल पुरानी शिक्षा पद्धति पर अटके हुए हैं। अब जब भारत के दुनिया की बड़ी ताकत बनने की बातें की जा रही हैं तो हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव करने होंगे, वरना दुनिया की महाशक्ति बनने का हमारा सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा।