आलेख : कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद 2 अक्टूबर, 2019 (युवाPRESS)। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अखंड भारत में चहुँओर गांधी की गूंज थी। उसके एक आह्वान पर पूरा देश चल पड़ता था। भारत को इतना बड़ा सामूहिक नेतृत्वकर्ता नेता 200 वर्षों की अंग्रेजी दासता के दौरान पहली बार मिला था। केवल गांधी शब्द सुनते ही लोग उस दिशा में नि:संकोच और नि:संदेह होकर निकल पड़ते थे, जहाँ उन्हें नि:शस्त्र रह कर यानी अहिंसा के साथ अंग्रेजी हुक़ूमत से लड़ाई लड़नी होती थी, क्योंकि इस गांधी का सबसे बड़ा शस्त्र था अहिंसा। आज गांधी और अहिंसा शब्द एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं, परंतु क्या आप जानते हैं कि अहिंसा का सिद्धांत अपनाने वाले उस गांधी के लिए अहिंसा की परिभाषा क्या थी ?
इस प्रश्न का उत्तर हम आपको आगे देंगे। इससे पहले आपको यह बता देते हैं कि हम जिस गांधी की बात कर रहे हैं, वह एक और अद्वितीय थे। न उनसे पहले ऐसा गांधी हुआ था और न ही उनके बाद होगा। गांधी एक ही थे। अद्वितीय शब्द इसलिए जोड़ना आवश्यक है, क्योंकि अद्वितीय का अर्थ एक को परिपक्व करता है अर्थात् केवल एक कहा जाए, तो एक से पहले शून्य और एक के बाद असंख्य आँकड़े लगाए जाने की संभावना रहती है, परंतु जब अद्वितीय कहा जाए, तो इसका अर्थ यह होता है कि गांधी जैसा दूसरा कोई नहीं था। जिस गांधी ने आज से 150 वर्ष पूर्व पोरबंदर की एक अंधेरी कोठरी में जन्म लिया था, वह गांधी एक और अद्वितीय थे, क्योंकि 150 वर्षों के इतिहास में न तो कोई दूसरा गांधी जन्मा और न ही जन्मेगा।
आज पूरा देश 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के तटवर्ती बंदरगाहीय शहर पोरबंदर (गुजराती में बंदर का अर्थ बंदरगाह ही होता है) में जन्मे मोहनदास करमचंद गांधी की जयंती मना रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित समूचे देश में आज इस मोहनदास करमचंद गांधी को इसलिए विशेष रूप से याद कर रहा है, क्योंकि मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी, बापू, गांधीजी और भारत के स्वघोषित राष्ट्रपिता बन चुके इस महापुरुष की आज 150वीं जयंती है। राजधानी नई दिल्ली में स्थित बापू की समाधि राजघाट पर मोदी-सोनिया सहित अनेक राजनेताओं ने प्यारे बापू को याद कर उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित किए।
गांधीजी की अहिंसा में कायरता के लिए कोई स्थान नहीं था

अब बात करते हैं शीर्षक की। यह तो हम बता ही चुके हैं कि गांधी क्यों एक और अद्वितीय थे, अब आपको बताते हैं कि जिस महात्मा गांधी को भारत सहित पूरा विश्व ‘अहिंसावादी’, ‘अहिंसक’, ‘अहिंसा के पुजारी’ जैसी उपमाओं से संबोधित करता है, उस महात्मा गांधी के विचारों में अहिंसा की परिभाषा क्या थी ? महात्मा गांधी ने सशस्त्र अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध कई अहिंसक आंदोलन किए। उनका पहला आंदोलन 1918 में चम्पारन सत्याग्रह और खेडा सत्याग्रह थे, जो शत प्रतिशत अहिंसक आंदोलन थे। इसके बाद असहयोग आंदोलन, स्वराज आंदोलन, दांडी मार्च के साथ नमक सत्याग्रह, दलित आंदोलन में भी महात्मा गांधी ने अहिंसा को ही अपना हथियार बनाए रखा, तो अंतिम ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भी उन्होंने अहिंसक रूप से ही अंग्रेजों के साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरी थी। इस निर्णायक ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश होना पड़ा। यद्यपि गांधीजी के अहिंसक आंदोलनों के दौरान भी हिंसा हुई, जिसका उन्होंने जम कर विरोध किया और उपवास तक रखे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई स्वतंत्रता सेनानियों को कई बार लगा कि अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसा से काम नहीं चलेगा। इतना ही नहीं, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को गांधीजी की अहिंसा चुभती थी और कई लोग तो गांधीजी की अहिंसा को कारयता की संज्ञा देकर उनकी आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे, परंतु वास्तव में गांधीजी की अहिंसा में कायरता के लिए कोई स्थान नहीं था।
सत्य और अहिंसा की यह थी गांधीजी की परिभाषा

महात्मा गांधी के जीवन पर धर्म-अध्यात्म का गहरा प्रभाव था। वे महान ग्रंथ श्रीमद् भगवद् गीता से अत्यंत प्रभावित थे। गांधीजी भले ही व्यावहारिक रूप से लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन के सुदृढ़ नेतृत्वकर्ता के रूप में दिखाई देते थे, परंतु उनका आंतरिक और व्यक्तिगत जीवन केवल और केवल सत्य की खोज पर केन्द्रित था। महात्मा गांधी की एकमात्र आत्मकथा सत्य के प्रयोग (The Story of My Experiments with Truth) (सत्यना प्रयोगो) में उन्होंने जो अपने विचार रखे, उसमें अत्यंत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अहिंसा को जब कोई कायरता समझे, तो उसके विरुद्ध शस्त्र उठाने में कोई आपत्ति नहीं है। वास्तव में गांधी जी ने अपना जीवन सत्य या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी स्वयं की भूलों और स्वयं पर प्रयोग करते हुए सीखने का प्रयास किया, जिसे उन्होंने ‘सत्य के प्रयोग’ कहा। इस आत्मकथा के अनुसार गांधीजी ने कहा, ‘सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं, भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है।’ गांधीजी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्यक्त किया, जब उन्होंने कहा, ‘ईश्वर ही सत्य है।’ बाद में उन्होंने अपने इस कथन को ‘सत्य ही ईश्वर है’ में परिवर्तित कर दिया। इस प्रकार सत्य में गांधी के दर्शन हैं ‘परमेश्वर’, जिसका वर्णन भगवान कृष्ण ने गीता में किया है।
गांधीजी नहीं थे अहिंसा के प्रवर्तक

अक्सर लोग यह समझते हैं कि महात्मा गांधी ने ही अहिंसा का पहली बार नारा दिया। वास्तव में गांधीजी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्कुल नहीं थे। हाँ, जीवन संग्राम, स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक क्षेत्र में अहिंसा के सिद्धांत को क्रियान्वित करने वाले वे पहले व्यक्ति अवश्य थे। अहिंसा (Non-Violence), अहिंसा (Ahimsa) और अप्रतिकार (Non-Resistance) का भारतीय धार्मिक-आध्यातमिक विचारों और दर्शन में एक लंबा इतिहास है। सनातन धर्म (हिन्दू), बौद्ध, जैन, यहूदी और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएँ अहिंसा के सिद्धांत पर टिकी हैं। उन्हीं से प्रेरित होकर गांधीजी ने अहिंसा के सिद्धांत को आचरण में आत्मसात किया। गांधीजी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में उन्होंने दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है।
किसी को मारने के लिए कोई कारण नहीं

इस आत्मकथा में गांधीजी कहते हैं,
‘जब मैं निराश होता हूँ, तब मैं याद करता हूँ कि यद्यपि इतिहास सत्य का मार्ग होता है, किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहाँ अत्याचारी और हत्यारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे, किंतु अंत में उनका पतन ही होता है। इसका सदैव विचार करें।’
‘मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा है।’
‘एक आँख के लिए दूसरी आँख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।’
‘मरने के लिए मेरे पास बहुत-से कारण हैं, किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।’
गांधीजी ने अपने इन सिद्धातों को लागू करने और इन्हें दुनिया को दिखाने के लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुँह नहीं मोड़ा, जहाँ सरकार, पुलिस और सेनाएँ भी अहिंसात्मक बन गईं थीं।
विज्ञान का युद्ध विरुद्ध अहिंसा का विज्ञान

महात्मा गांधी के अनुसार, ‘विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को पहले तानाशाह बनाता है, फिर शुद्धता और सरलता की ओर ले जाता है, जबकि अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतंत्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है। प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न शक्ति से हजार गुना अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निंदा करने जैसा होगा कि कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतंत्र होगा; संपूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज ही शुद्ध अराजकता वाला समाज होगा। मैंने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की ज़रूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्वास रखने वालों से किया जाएगा। लोग उनकी हर संभव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे। श्रम और पूंजी तथा हड़तालों के बीच हिंसक झगड़े बहुत कम होंगे और अहिंसक राज्यों में तो बहुत कम होंगे, क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी। शांति एवं अव्यवस्था के समय सशस्त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई अहिंसात्मक कार्य उनका यह कर्तव्य होगा कि वे विजय दिलाने वाले समुदायों को एकजुट करें, जिसमें शांति का प्रसार तथा ऐसी गतिविधियों का समावेश हो, जो किसी भी व्यक्ति को उसके चर्च अथवा खंड में संपर्क बनाए रखते हुए अपने साथ मिला लें। इस प्रकार की सेना को किसी भी आपात स्थिति से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा भीड़ के क्रोध को शांत करने के लिए उसके पास मरने के लिए सैनिकों की पर्याप्त नफरी भी होनी चाहिए। सत्याग्रह (सत्यबल) के बिग्रेड को प्रत्येक गाँव तथा शहर तक भवनों के प्रत्येक ब्लॉक में संगठित किया जा सकता है। यदि अहिंसात्मक समाज पर हमला किया जाता है तब अहिंसा के दो मार्ग खुलते हैं। अधिकार पाने के लिए हमलावर से सहयोग न करें बल्कि समर्पण करने की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाना पसंद करें। दूसरा तरीका होगा ऐसी जनता द्वारा अहिंसक प्रतिरोध करना हो सकता है जिन्हें अहिंसक तरीके से प्रशिक्षित किया गया हो। इस अप्रत्याशित प्रदर्शन की अनंत राहों पर पुरुषों और महिलाओं को हमलावर की इच्छा लिए आत्मसमर्पण करने की बजाए आसानी से मरना अच्छा लगता है और अंतंत: उसे तथा उसकी सैनिक बहादुरी के समक्ष पिघलना जरूर पड़ता है। ऐसे किसी देश अथवा समूह, जिसने अंहिंसा को अपनी अंतिम नीति बना लिया है, उसे परमाणु बम भी अपना दास नहीं बना सकता है। उस देश में अहिंसा का स्तर खुशी-खुशी गुजरता है, तब वह प्राकृतिक तौर पर इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसे सार्वभोमिक आदर मिलने लगता है।’
डरपोक और हिंसा में से हिंसा का चयन करूँगा

महात्मा गांधी के विचारों के अनुरूप 1940 में जब नाज़ी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्न दिखाई दिए, तब गांधीजी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध में अहिंसा की इस नीति का अनुसरण करने के लिए कहा, ‘मैं आपसे हथियार रखने के लिए कहना पसंद करूँगा, क्योंकि ये आपको अथवा मानवता को बचाने में बेकार हैं। आपको हेर हिटलर और सिगनोर मुसोलिनी को आमंत्रित करना होगा कि उन्हें देशों से जो कुछ चाहिए, आप उन्हें अपना अधिकार कहते हैं। यदि इन सज्जनों को अपने घर पर रहने का चयन करना है, तब आपको उन्हें खाली करना होगा। यदि वे तुम्हें आसानी से रास्ता नहीं देते हैं, तब आप अपने आपको, पुरूषों को महिलाओं को और बच्चों की बलि देने की अनुमति देंगे, किंतु अपनी निष्ठा के प्रति झुकने से इनकार करेंगे।’ 1946 में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में महात्मा गांधी ने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया, ‘यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था। उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फेंक देना चाहिए था।’ यद्यपि गांधी जी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्तर को अटूट विश्वास और साहस की ज़रूरत होगी और इसके लिए उन्होंने महसूस कर लिया था कि यह हर किसी के पास नहीं होता है। इसलिए गांधीजी ने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की ज़रूरत नहीं है, विशेष रूप से उस समय, जब अहिंसा को कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।’ गांधीजी ने अपने सत्याग्रह आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा, जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा प्रतिरोध करने में स्वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्होंने लिखा, ‘मैं मानता हूँ कि जहाँ डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो, तो मैं हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूँगा। प्रत्येक सभा पर मैं तब तक चेतावनी दोहराता रहता था, जब तक उन्हें यह अहसास नहीं हो जाता है कि वे एक ऐसे अंहिसात्मक बल के अधिकार में आ गए हैं, जिसके अधिकार में वे पहले भी थे और वे उस प्रयोग के आदी हो चुके थे और उनका मानना था कि उन्हें अहिंसा से कुछ लेना-देना नहीं हैं तथा फिर से हथियार उठा लिए थे। खुदाई खिदमतगार (Khudai Khidmatgar) के बारे में ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए कि जो एक बार इतने बहादुर थे कि बादशाह खान (Badshah Khan) के प्रभाव में अब वे डरपोक बन गए। वीरता केवल अच्छे निशाने वालों में ही नहीं होती है, बल्कि मृत्यु को हरा देने वालों में तथा अपनी छातियों को गोली खाने के लिए सदा तैयार रहने वालों में भी होती है।’