रिपोर्ट : विनीत दुबे
अहमदाबाद, 6 अगस्त, 2019 (युवाPRESS)। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की काम करने की शैली विरोधियों के लिये मुश्किलें पैदा करने वाली रही है। उनके फैसलों के बाद विरोधियों के लिये हमेशा यह धर्म संकट पैदा हुआ है कि वह मोदी सरकार का समर्थन करें या विरोध करें ? कई बार तो ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं, जिनमें विपक्ष को न चाहते हुए भी समर्थन करना पड़ा और कई बार चाहकर भी खुलकर विरोध नहीं कर पाया।
गोधरा कांड और गुजरात दंगे
नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उनके सत्ता की बागडोर सँभालने के कुछ दिन बाद ही गोधरा कांड हो गया, जिसमें उत्तर प्रदेश से अहमदाबाद आ रही साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 नंबर के कोच को 27 फरवरी-2002 की सुबह गोधरा रेलवे स्टेशन के पास कुछ कट्टरपंथियों ने घेरकर जला दिया। इस कोच में यात्रा कर रहे महिलाओं और बच्चों समेत 59 कारसेवकों की जिंदा जलने से मौत हो गई। इस घटना के बाद पूरे गुजरात में तनाव की स्थिति पैदा हो गई थी और अगले दिन 28 फरवरी को विश्व हिंदू परिषद द्वारा आहूत गुजरात बंद के दौरान राज्य के कई हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी। तत्कालीन सीएम मोदी पर दंगों को रोकने का दबाव था, हालाँकि लोगों में इतना गुस्सा था कि मोदी सरकार को दंगों पर नियंत्रण पाने में समय लगा और सीएम मोदी विरोधियों के निशाने पर आ गये। उस समय विपक्ष ने सीएम मोदी और उनकी सरकार के कई मंत्रियों पर दंगा भड़काने, दंगाइयों को प्रोत्साहित करने जैसे आरोप लगाये, परंतु विपक्ष वोट बैंक की राजनीति के चक्कर में दंगे भड़कने की मुख्य वजह बने गोधरा कांड का खुल कर आलोचना नहीं कर सका था और उस समय भी विपक्ष असमंजस की स्थिति में था।
विपक्ष ही नहीं, विदेशियों का भी छुड़ाया पसीना
गुजरात दंगों का दाग लगने से अमेरिका ने वहाँ बसने वाले प्रवासी भारतीयों से मिलने के लिये गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी को अमेरिका का विज़ा देने से मना कर दिया था, जिसकी वजह से कई वर्ष तक मोदी अमेरिका नहीं जा सके। हालाँकि कहते हैं न कि ‘अच्छे लोगों के साथ हमेशा अच्छा ही होता है’ वही हुआ मोदी के साथ भी, उनके लिये ‘…तो दाग अच्छे हैं’ वाली बात सही सिद्ध हुई और दंगों की आग में झुलसकर मोदी देश में हिंदू हृदय सम्राट बनकर उभरे। अपनी हिंदुत्ववादी नेता की छवि के साथ-साथ उन्होंने गुजरात पर लगे दंगों के दाग को धोने के लिये विकास की ऐसी गंगा बहाई कि उन्होंने विकास पुरुष के रूप में भी पहचान बनाई। 2002, 2007 और 2012 में लगातार तीन टर्म तक गुजरात में भाजपा को इकतरफा जीत दिलाकर सत्तासीन करने के बाद वह भाजपा के सबसे कद्दावर नेता के रूप में उभरे और पार्टी को केन्द्र में सत्ता प्राप्त करने के लिये उन्हें आगे करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
विपक्ष के पास मोदी का विकल्प नहीं
2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान जब भाजपा और एनडीए ने गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में आगे किया तो तब भी विपक्ष के पास उनका कोई जवाब नहीं था और मोदी के नेतृत्व में भाजपा-एनडीए ने मैदान मार लिया। 2016 में उरी हमले के बाद मोदी सरकार ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK) में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि दुनिया भर को भारत का दम दिखाया। तब भी कांग्रेस असमंजस में दिखी और समर्थन करने की बजाय सबूत माँगती नज़र आई। 2017 में जब मोदी सरकार ने गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स (GST) बिल पास किया तब भी विपक्ष मोदी सरकार के समक्ष बेबस नज़र आया।
एयर स्ट्राइक से लेकर धारा 370 तक बेबस विपक्ष
2019 की बात करें तो फरवरी में जम्मू कश्मीर के पुलवामा में केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) के दल पर हमले के बाद मोदी सरकार ने पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों के ठिकानों पर एयर स्ट्राइक की, तब भी विपक्ष असमंजस में दिखाई दिया और फैसला ही नहीं कर पाया कि वह सरकार के कदम का समर्थन करे या विरोध करे। कांग्रेस की बात करें तो उसके कुछ नेता दोबारा सबूत माँगते दिखाई दिये तो कुछ नेताओं ने कांग्रेस के कार्यकाल में भी सर्जिकल स्ट्राइक होने की डींगें मारी, जिन्हें रिटायर्ड सेनाधिकारियों ने ही झुठला दिया और विपक्ष को बगलें झाँकनी पड़ी।
मोदी सरकार ने जमीन और आकाश में ही नहीं, एंटी सैटेलाइट मिसाइल का परीक्षण करके अंतरिक्ष में भी भारत की ताकत दुनिया को दिखाई, तब भी विपक्ष की जुबान बंद हो गई। फिर चंद्रयान-2 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करने और मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के दलदल से बाहर निकालने वाले तीन तलाक प्रतिबंधक बिल लाकर मोदी सरकार ने एक बार फिर विपक्ष को बेजुबान बना दिया और कोई दल न इस बिल का खुलकर समर्थन कर पाया और न ही विरोध कर पाया।
सबसे बड़ा झटका जम्मू-कश्मीर को लेकर दिया। यह झटका इतना तीव्र है कि कई विपक्षी नेता तो अब तक सन्न हैं और ‘त्रिशंकु’ की स्थिति में आ गये हैं, जो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वह मोदी सरकार की पीठ थपथपाएं या चुप रहें। क्योंकि विरोध करने का तो उनके पास विकल्प ही नहीं है और यदि ऐसा करते हैं तो पूरे देश की दृष्टि में विलेन साबित होते हैं। ऐसी ही स्थिति में हैं मोदी और शाह की धुर विरोधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, जिनकी तरफ से अभी तक न तो सरकार का समर्थन किया गया है और न ही वह खुलकर विरोध कर पा रही हैं। ऐसे में उनके पास एक ही विकल्प बचा है जो उन्होंने अपना भी लिया है, उन्होंने तटस्थता की चादर ओढ़ ली है, जो कि वास्तव में तटस्थता नहीं है, बल्कि इसे ही ‘त्रिशंकु’ कहा जाता है, जो यह फैसला नहीं कर पाता है कि उसे किस दिशा में जाना है और वह एक ही धुरी पर अधर में घूमता रहता है।