आलेख : कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद 26 दिसंबर, 2019 (युवाPRESS)। आप कल्पना कीजिए कि आपको मौत की सजा सुनाई गई हो और सामने फाँसी का फंदा हो। चंद मिनटों बाद आपको फाँसी के उस फंदे पर लटका दिया जाने वाला हो। फाँसी पर लटकाने से पहले आपके चेहरे पर काला कपड़ा ढँकने की तैयारी हो रही हो। उस समय आपके मनोमस्तिष्क और हृदय में कितने भयानक भय के भाव उठेंगे ? आपका चेहरा किस तरह फीका पड़ गया होगा ?
परंतु माँ भारती की इस भूमि पर ऐसे अनेक वीर सपूत पैदा हुए, जो हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर लटक गए। भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की बुलंद आवाज़ को अंग्रेजी हुकूमत ने फाँसी पर चढ़ा कर शांत कर दिया। ऐसे ही एक वीर सपूत थे सरदार उधम सिंह, जिनकी आज 120वीं जयंती है। वे उधम सिंह थे, जिन्होंने जलियाँवाला बाग हत्या कांड का प्रतिशोध लिया और इस नरसंहार के वास्तविक अपराधी के माथे पर गोली मारी थी। उधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को लंदन की पेंटनविले जेल में फाँसी दी गई थी। उधम सिंह को यह फाँसी जिस अपराध के लिए दी गई थी, उसे लेकर उनके मन में कोई ग्लानि नहीं, अपितु गर्व था। दरअसल उधम सिंह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नरसंहार जलियाँवाला बाग हत्याकांड का प्रतिशोध पूरा किया था। उधम सिंह ही वह वीर सपूत थे, जिन्होंने जलियाँवाला बाग नरसंहार करने वाले माइकल ओ’ड्वायर की हत्या कर जलियाँवाला बाग की ख़ून से सनी मिट्टी हाथों में लेकर उठाई गई प्रतिशोध की सौगंध को पूरा किया था।
ख़ून से सनी मिट्टी हाथों में लेकर उठाई सौगंध

ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि फाँसी के फंदे पर लटकते समय उधम सिंह के चेहरे पर सिकन नहीं, अपितु जलियाँवाला बाग हत्याकांड के प्रतिशोध की धधकती ज्वाला को ठंडा करने का लक्ष्य पूरा करने का सुकूँ रहा होगा। हाल ही में भारत में जिस जलियाँवाला बाग नरसंहार की 100वीं बरसी मनाई गई, वह नरसंहार 13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर स्थित जलियाँवाला बाग़ में हुआ था। जलियाँवाला बाग़ में एकत्र हुए आज़ादी के हजारों दीवानों पर अंग्रेजी शासकों ने अंधाधुंध गोलियाँ बरसाई थीं। अधिकृत आँकड़ों के अनुसार इस हत्याकांड में 484 लोग शहीद हुए थे, जबकि अनधिकृत आँकड़ों के अनुसार शहीदों की संख्या 1000 से अधिक बताई जाती है। 13 अप्रैल, 1919 को जब जलियाँवाला बाग़ नरसंहार हुआ, तब उधम सिंह भी वहाँ मौजूद थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन, माइकल ओ’ड्वायर के षड्यंत्र और जनरल डायर की क्रूरता के कारण हजारों लोगों को अपनी आँखों के सामने मरते देखा था। इस घटना ने उधम सिंह के सीने में आग लगा दी। उधम सिंह ने जलियाँवाला बाग़ की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ’ड्वायर से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा ली।
21 वर्षों तक की प्रतिशोध की प्रतीक्षा

उधम सिंह ने प्रतिज्ञा लेने के बाद अपने मिशन को अंजाम देने के लिए अलग-अलग नाम धारण कर अफ्रीका, नैरोबी, ब्राज़ील और अेरिका की यात्रा करते हुए 1934 में लंदन पहुँचे। वे लंदन में 9, एल्डर स्ट्रीट कॉमर्शियल रोड पर रहने लगे। उन्होंने लंदन में यात्रा के लिए कार खरीदी और साथ में अपने मिशन को पूरा करने के लिए 6 गोलियों वाली एक रिवॉल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी अब माइकल ओ’ड्वायर को नर्क पहुँचाने के लिए योग्य समय की प्रतीक्षा करने लगा। उसे अवसर मिला 21 साल बाद 1940 में। 13 मार्च, 1940 को लंदन में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की कैक्स्टन हॉल में आयोजित बैठक में माइकल ओ’ड़्वायर मुख्य वक्ताओं में से एक था। उधम सिंह इस बैठक स्थल पर पहुँचे। उन्होंने रिवॉल्वर एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उसी तरह काट लिया था, जिससे ओ’ड्वायर की मौत का सामान आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’ड्वायर पर गोलियाँ बरसाईं। उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की, अपितु सीना तान कर गिरफ्तारी दी। 4 जून, 1940 को उधम सिंह को अदालत ने हत्या का दोषी ठहराया और 31 जुलाई, 1940 को उधम सिंह को पेंटनविले जेल में फाँसी दे दी गई।
कौन थे उधम सिंह ?

उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में कंबोज परिवार में हुआ था। 1901 में माता और 1907 में पिता के निधन के बाद उधम सिंह को बड़े भाई के साथ अमृतसर में एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था। अनाथालय में ही दोनों भाइयों को उधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम मिले। उधम सिंह देश में सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे। इसलिए उन्होंने अपना नाम बदल कर राम मोहम्मद सिंह आज़ाद रखा था, जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक हैं। उधम सिंह भाई साधु सिंह के साथ अमृतसर के अनाथालय में जीवनयापन कर रहे थे कि 1917 में भाई का देहांत हो गया। उधम सिंह अब पूरी तरह अनाथ हो गए। उन्होंने 1919 में अनाथालय छोड़ा और क्रांतिकारियों के साथ मिल कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए।