लोकसभा चुनाव 2019 में अभी चार चरणों के लिए मतदान शेष है, परंतु इससे पहले आज वाराणसी से जो तसवीरें सामने आईं, उसने दो कटु सत्यों को उजागर कर दिया। वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नामांकन पत्र के दौरान जहाँ चार-साढ़े चार वर्षों में कई बार आपस में भिड़ चुके एनडीए के नेताओं का भेंट-मिलाप दिखाई दे रहा था, वहीं पिछले तीन वर्षों से मोदी को सत्ता से हटाने के नाम पर ढोंगी एकता और शक्ति का प्रदर्शन करने वाले नेताओं का भेंट-मिलाप चुनावी ज़मीन पर आपसी भिड़ंत में परिवर्तित हो गया।
लोकसभा चुनाव 2014 में मोदी लहर थी और पूरे भारत ने ज़ोर लगा कर तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचा दिया, परंतु पाँच वर्ष बाद हो रहे लोकसभा चुनाव 2019 में परिस्थितियाँ बहुत बदल चुकी हैं। 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा-BJP) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग-NDA) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मोदी का मुकाबला उस कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों से बने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-UPA) से था, जो सत्तारूढ़ था। चुनाव हुए और यूपीए को सत्ता से बाहर होना पड़ा, तो एनडीए सत्तारूढ़ हुआ। हालाँकि देश के राजनीतिक दलों में कई दल ऐसे भी थे और हैं, जो न तो एनडीए का हिस्सा थे-हैं और न ही यूपीए का। ऐसी पार्टियों में अधिकांशतः क्षेत्रीय पार्टियाँ थीं-हैं।
चार वर्षों में एक तरफ फूट, दूसरी तरफ लूट
नरेन्द्र मोदी ने 26 मई, 2014 को पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। भाजपा के अकेले दम पर बहुमत हासिल करने के बावजूद मोदी ने एनडीए के घटक दलों को साथ रखा, तो दूसरी तरफ सत्ता से बाहर होते ही यूपीए में बिखराव का दौर शुरू हुआ। किसी भी चुनाव परिणाम के बाद जीतने और हारने वाले पक्षों में घटने वाली ये सामान्य घटनाएँ थीं। घटनाएँ तब असामान्य घटने लगीं, जब मोदी सरकार के तीन साल के कार्यकाल के बाद एक तरफ एनडीए में घटक दलों में बिखराव शुरू हुआ और यूपीए तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ एकजुट होने लगी। सबसे पहले मोदी के विरुद्ध मुखर होकर उभरी शिवसेना, जो महाराष्ट्र में एनडीए का मजबूत घटक दल था-है। उद्धव ठाकरे और सामना ने मोदी और उनकी नीतियों पर तीन सालों तक खूब खरी-खोटी कही-सुनाई। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम् पार्टी (TDP) के मुखिया चंद्रबाबू नायडू ने तो एनडीए का साथ ही छोड़ दिया और मोदी विरोधी मंचों पर राहुल के साथ खड़े नजर आए। उत्तर प्रदेश से भी आरएलएसपी जैसे घटक दल ने एनडीए का साथ छोड़ दिया। पंजाब विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिरोमणि अकाली दल की हार से इस गठबंधन पर भी सवाल खड़े होने लगे, परंतु इन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच एनडीए को बिहार में पुराना साथी जनता दल ‘युनाइटेड’ (जदयू-JDU) वापस मिल गया। नीतिश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद-RJD) और लालू प्रसाद यादव का साथ छोड़ा और मोदी के नेतृत्व को स्वीकार करते हुए फिर से एनडीए का हिस्सा बन गए। इधर एनडीए में बिखराव जैसे हालात थे, तो दूसरी तरफ कांग्रेस-यूपीए मोदी विरोध के नाम की लूट शुरू हुई। कभी सोनिया गांधी-राहुल गांधी के नेतृत्व में मोदी विरोधी नेताओं का सामूहिक भोज, कभी दिल्ली और कभी दिल्ली से बाहर बेंगलुरू तथा कोलकाता में मोदी विरोधियों की एकजुटता दिखाई दी। एक समय ऐसा लगने लगा था कि देश में मोदी का मैजिक समाप्ति की ओर है और मोदी विरोधियों का प्रभाव भाजपा पर भारी पड़ेगा।
चुनावी ज़मीन पर गठबंधन बना ठगबंधन !
एनडीए और यूपीए तथा क्षेत्रीय दलों में बिखराव-जुड़ाव का यह नाटक लोकसभा चुनाव 2019 की घोषणा से पहले तक चलता रहा, परंतु चुनावों की घोषणा होते ही परिस्थितियाँ बदलने लगीं। पिछले चार वर्षों में जो एनडीए बिखरता नज़र आ रहा था, वह चुनाव की घोषणा के बाद धीरे-धीरे फिर एकजुट होने लगा और आज वाराणसी में एनडीए ने अपनी एकजुटता का शक्ति प्रदर्शन भी करके दिखा दिया। दूसरी तरफ मोदी विरोध का मुखौटा पहने कांग्रेस-यूपीए राज्यों में जाकर बिखर गया। मोदी विरोधी मंचों पर राहुल के साथ खड़े नेता चंद्रबाबू नायडू, के. चंद्रशेखर राव, ममता बैनर्जी, सीताराम येचुरी, अरविंद केजरीवाल की पार्टियों का आपस में कोई गठबंधन नहीं है, तो मायावती-अखिलेश यादव ने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया है। चंद्रबाबू नायडू, के. चंद्रशेखर राव भी अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे हैं। कांग्रेस-यूपीए मोदी के विरुद्ध जिस महागठबंधन की कल्पना प्रस्तुत कर रहे थे, वह केवल महाराष्ट्र-बिहार जैसे कुछ राज्यों में ही दिखाई दे रहा है।