कन्हैया कोष्टी
अहमदाबादा। पूरा देश जब होली और धुलंडी के रंगों में डूबा हुआ था, तब भारतीय राजनीति के एक महा‘रथी’ के राजनीतिक जीवन के लम्बे अध्याय का समापन हो रहा था। यह महा‘रथी’ कोई और नहीं, अपितु भारतीय जनता पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता तथा पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी थे।
जैसे ही देश की राजधानी दिल्ली से लोकसभा चुनाव 2019 के लिए भाजपा प्रत्याशियों की पहली सूची जारी हुई, उसके साथ ही देश में रथों पर सवार होकर रथयात्रा की राजनीति करने वाले आडवाणी का राजनीतिक करियर लगभग समाप्त हो गया, क्योंकि भाजपा की इस पहली सूची में गुजरात की राजधानी से प्रत्याशी के रूप में आडवाणी का नहीं, बल्कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का नाम था।
गुजरात की राजधानी गांधीनगर भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित लोकसभा सीट रही है और आडवाणी इस लोकसभा सीट से छह बार सांसद चुने गए हैं। आडवाणी ने पहली बार लोकसभा चुनाव 1991 में गांधीनगर सीट जीती थी। इसके बाद 1998, 1999, 2004, 2009 और गत लोकसभा चुनाव 2014 में भी वे गांधीनगर से ही विजयी हुए थे। चूँकि आडवाणी अब 91 वर्ष के हो चुके हैं। राष्ट्रीय पटल पर नरेन्द्र मोदी और उनके बाद अमित शाह के उभार के साथ ही आडवाणी की राजनीतिक चमक वैसे ही फीकी पड़ चुकी थी। अब इस बार पार्टी ने गांधीनगर से उनका टिकट काट कर उन्हें लगभग चुनावी राजनीति से संन्यास के कगार पर ला खड़ा किया है।
यह तो हुई आडवाणी की बात, लेकिन भाजपा या अमित शाह के इस कदम के पीछे केवल आडवाणी की आयु कारण नहीं है, बल्कि एक महत्वपूर्ण रणनीति के तहत भाजपा ने गुजरात की गांधीनगर सीट से अमित शाह को चुनाव मैदान में उतारने का निर्णय किया है।
भाजपा के इस कदम का राजनीतिक विश्लेषण करें, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि मोदी के शाह ने एक तीर से चार निशान ताकते हुए भाजपा और भारत के राजनीतिक इतिहास में अपनी ‘अमिट’ छाप छोड़ने का प्रयास किया है।

पहला निशान :
लोकसभा चुनाव 2014 में मोदी लहर थी और अमित शाह के हाथ केवल उत्तर प्रदेश की कमान थी। मोदी ने वाराणसी और गुजरात में वडोदरा दो सीटों से चुनाव लड़ा था। इस बार भी यह कयास अवश्य लगाए जा रहे थे कि मोदी फिर वाराणसी के अलावा एक बार गुजरात में किसी सीट से चुनाव लड़ेंगे, परंतु यह अमित शाह की रणनीति का ही हिस्सा है कि पार्टी के दो बड़े नेता एक ही राज्य से चुनाव न लड़ें और इसीलिए अमित शाह ने गांधीनगर का मोर्चा संभाला।
दूसरा निशान :
भाजपा को पूरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वाराणसी से आसानी से चुनाव जीत जाएँगे। ऐसे में भाजपा अध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य अमित शाह को पार्टी ने गांधीनगर से मैदान में उतार कर उनकी जीत का भी मार्ग प्रशस्त कर दिया, क्योंकि गांधीनगर सीट पर भाजपा 1989 से दबदबा है। इस सीट के लिए 14 बार हुए चुनाव में मात्र 4 बार कांग्रेस जीत सकी है। एक बार भाजपा के पूर्ववर्ती भारतीय लोकदल को और शेष 7 बार भाजपा को यहाँ जीत मिली। इस तरह भाजपा के सबसे मजबूत गढ़ से उम्मीदवारी करने के कारण अमित शाह को अपनी जीत के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी, जिसके चलते वे पार्टी अध्यक्ष के तौर पर पूरे देश में चुनाव प्रचार अभियान पर ध्यान केन्द्रित कर सकेंगे।
तीसरा निशान :
वैसे तो गुजरात में 1989 से भाजपा का वर्चस्व रहा है, लेकिन 2001 में नरेन्द्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा और मजबूत हुई। मोदी ने गुजरात में सबसे लम्बे शासन (13 वर्ष) का रिकॉर्ड भी बनाया। गुजरात में भाजपा के वर्चस्व की पराकाष्ठा 2014 में देखने को मिली, जब लोकसभा चुनाव में गुजरात की जनता ने राज्य की सभी 26 सीटें भाजपा के दामन में धर दीं, परंतु उसके बाद एक तरफ मोदी प्रधानमंत्री बन कर देश की सेवा में जुट गए और अमित शाह को पार्टी की कमान सौंप दी गई। मोदी-शाह ने देश में तो भाजपा को अभूतपूर्व विस्तार दिया, परंतु मजबूत गढ़ गुजरात में पार्टी कमजोर हुई, जिसके चलते विधानसभा चुनाव 2017 में पार्टी 182 में से 150 सीटों पर जीत के दावे के सामने केवल 99 सीटों पर सिमट गई। अब शाह के गांधीनगर से उम्मीदवारी करने का सकारात्मक राजनीतिक प्रभाव पूरे गुजरात पर पड़ेगा और लोकसभा चुनाव में अन्य 25 सीटों पर भी भाजपा को इसका फायदा मिलेगा।
चौथा निशान
गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के चलते भाजपा का प्रमुख वोट बैंक माना जाने वाला पाटीदार समुदाय काफी हद तक पार्टी से विमुख हुआ। पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के साथ बड़ा पाटीदार समर्थन होने के बावजूद जब गुजरात की भाजपा सरकार ने पाटीदार आरक्षण को तवज्जो नहीं दी, तो विधानसभा चुनाव 2017 में भाजपा को पाटीदार समुदाय की नाराजगी और नुकसान का सामना करना पड़ा। इसके साथ ही हार्दिक पटेल और कांग्रेस ने गुजरात के पाटीदारों में मोदी और शाह के पाटीदार विरोधी होने की छवि पैदा करने में कोई कोताही नहीं बरती। गांधीनगर सीट भी पाटीदार बहुल सीट है। शाह की पत्नी स्वयं पाटीदार हैं। ऐसे में शाह ने गांधीनगर से पाटीदारों के समर्थन के साथ विजयी होने की चुनौती लेकर पूरे गुजरात के पाटीदारों में यह विश्वास पैदा करने का प्रयास किया है कि हार्दिक पटेल (जिन्हें भाजपा शुरू से ही कांग्रेस का मोहरा बताती थी और जो अब कांग्रेस विधिवत् शामिल भी हो चुके हैं) ने कभी भी पाटीदारों का भला नहीं चाहा। भाजपा के साथ रहने में ही पाटीदारों की उन्नति है।